लोगों की राय

आचार्य श्रीराम शर्मा >> विवादों से परे ईश्वर का अस्तित्व

विवादों से परे ईश्वर का अस्तित्व

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4135
आईएसबीएन :00000

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

27 पाठक हैं

विवादों से परे ईश्वर का अस्तित्व....

Vivadon Se Pare Ishwer Ka Astitwa

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


ईश्वर रूठा हुआ नहीं है कि उसे मनाने को मनुहार करनी पड़े। रूठा तो अपना स्वभाव और कर्म है, मनाना उसी को चाहिए। अपने आप से ही प्रार्थना करें कि कुचाल छोड़ें। मन को मना लिया-आत्मा को उठा लिया, तो समझना चाहिए ईश्वर की प्रार्थना सफल हो गई और उसका अनुग्रह उपलब्ध हो गया।

विवाद से परे ईश्वर का अस्तित्व


ईश्वर का अस्तित्व एक ऐसा विवादास्पद प्रश्न है, जिसके पक्ष और विपक्ष में एक से एक जोरदार तर्क-वितर्क दिये जा सकते हैं। तर्क से सिद्ध हो जाने पर न किसी का आस्तित्व प्रमाणित हो जाता है और ‘सिद्ध’ न होने पर भी न कोई अस्तित्व अप्रमाणित बन जाता है। ईश्वर की सत्ता में विश्वास उसकी नियम व्यवस्था के प्रति निष्ठा और आदर्शों के प्रति आस्था में फलित होता है, उसी का नाम आस्तिकता है। यों कई लोग स्वयं को ईश्वर विश्वासी मानते बताते हैं, फिर भी उनमें आदर्शों व नैतिक मूल्यों के प्रति आस्था का अभाव होता है। ऐसी छद्म आस्तिकता के कारण ही ईश्वर के अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लगता है। नास्तिकतावादी दर्शन द्वारा ईश्वर के अस्तित्व को मिथ्या सिद्ध करने के लिए जो तर्क दिये व सिद्धांत प्रतिपादित किये जाते हैं, वे इसी छद्म नास्तिकता पर आधारित हैं।

आस्तिकतावाद मात्र पूजा-उपासना की क्रिया-प्रतिक्रिया नहीं है, उसके पीछे एक प्रबल दर्शन भी जुड़ा हुआ है, जो मनुष्य की आकांक्षा, चिंतन-प्रक्रिया और कर्म-पद्धति को प्रभावित करता है। समाज, संस्कृति, चरित्र, संयम, सेवा, पुण्य परमार्थ आदि सत्प्रवृत्तियों को अपनाने से व्यक्ति की भौतिक सुख-सुविधाओं में निश्चति कमी आती है, भले ही उस बचत का उपयोग लोक-कल्याण में कितना ही अच्छाई के साथ क्यों न होता हो ? आदर्शवादिता के मार्ग पर चलते हुए, जो प्रत्यक्ष क्षति होती है उसकी पूर्ति ईश्वरवादी स्वर्ग, मुक्ति, ईश्वरीय प्रसन्नता आदि विश्वासों के आधार पर कर लेता है। इसी प्रकार अनैतिक कार्य करने के आकर्षण सामने आने पर वह ईश्वर के दंड से डरता है। नास्तिकतावादी के लिए न तो पाप के दंड से डरने की जरूरत रही जाती है और न पुण्य परमार्थ का कुछ आकर्षण रहता है। आत्मा का अस्तित्व अस्वीकार करने और शरीर की मृत्यु के साथ आत्यंतिक मृत्यु हो जाने की मान्यता, उसे यही प्रेरणा देती है कि जब तक जीना हो अधिकाधिक मौज-मजा उड़ाना चाहिए। यही जीवन का लाभ और लक्ष्य होना चाहिए।

उपासना से भक्त को अथवा भगवान् को क्या लाभ होता है ? यह प्रश्न पीछे का है। प्रधान तथ्य यह है कि आत्मा और परमात्मा की मान्यता मनुष्य के चिंतन और कर्तृत्व को एक नीति नियम के अंतर्गत बहुत हद तक जकड़ रहने में सफल होती है। इन दार्शनिक-बंधनों को उठा लिया जायो तो मनुष्य की पशुता कितनी उद्धत हो सकती है और उसका दुष्परिणाम किस प्रकार समस्त संसार के भुगतना पड़ सकता है ? इसकी कल्पना भी कँपा देने वाली है।
निःसंदेह युग के महान् दार्शनिकों में से रूसो और मार्क्स की ही भाँति ही फैडरिक नीत्से की भी गणना की जाये। इन तीनों ने ही समय की विकृतियों को और उनके कारण उत्पन्न होने वाली व्यथा-वेदनाओं को सहानुभूति के साथ समझने का प्रयत्न किया है। अपनी मनःस्थिति के अनुरूप उपाय भी सुझाये हैं। अपूर्ण मानव के सुझाव भी अपूर्ण ही हो सकते हैं। कल्पना और व्यवहार में जो अंतर रहता है, उसे अनुभव के आधार पर क्रमशः सुधारा जाता है। यही उपरोक्त प्रतिपादनों के संबंध में भी प्रयुक्त होना चाहिए, हो भी रहा है।

शासन तंत्र पिछले दिनों निरंकुश राजाओं और सामंतों के हाथ चल रहा था, उनके स्वेच्छाचार का दुष्परिणाम निरीह प्रजा को भुगतना पड़ता था, प्रजतंत्र का, तदुपरांत साम्य तंत्र का विकल्प सामने आया। बौद्धिक जगत् में ईश्वर की मान्यता सबसे पुरानी है और सबसे सबल और लोक–समर्थित होने के कारण बहुत प्रभावशाली रही थी। वह मानव तंत्र को दिशा देने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका संपादित करती है किंतु दुर्भाग्य यह है कि ईश्वरवाद के नाम पर भ्रांतियों का इतना बड़ा जाल-जंजाल खड़ा कर दिया गया है। जिससे आस्तिकवादी दर्शन का मूल प्रयोजन ही नष्ट कर हो गया। निहित-स्वार्थों ने भावुक जनता का शोषण करने में कोई कसर न रखी। इतनी ही नहीं अनैतिक और अवांछनीय कार्यों को भी, ईश्वर की प्रसन्नता के लिए, करने के विधान बन गये। राजतंत्र की दुर्गति ने जिस प्रकार रूसो और मार्क्स को उत्तेजित किया ठीक वैसी ही चोट ईश्वरवाद के नाम पर चल रही विकृतियों ने नीत्से को पहुँचाई।

उसने अनीश्वरवाद का नारा बुलंद किया और जनमानस पर से ईश्वरवाद की छाया उतार फेंकने के लिए तर्कशास्त्र और भवुकता का खुलकर प्रयोग किया। उसने जन-चेतना को उद्बोधन करते हुए कहा—‘ईश्वर की सत्ता मर गई, उसे दिमाग से निकाल फेंकों, नहीं तो शरीर पूरी तरह गल जायेगा। स्वयं को ईश्वर के अभाव में जीवित रखने का अभ्यास डालो। अपने पैरों पर खड़े होओ। अपनी उन्नति आप करो और अपनी समस्याओं का समाधान आप ढूँढ़ों। अपने ‘सत्’ को अपनी इच्छा शक्ति से स्वयं जगाओ और उसे ईश्वर की सत्ता के समकक्ष प्रतिद्वंद्वी के रूप में प्रस्तुत करो। अतिमानव बनने की दिशा में बढ़ो पर जमीन से पाँव उखाड़कर, आसमान में मत उड़ो। वस्तुस्थिति की उपेक्षा कर, कल्पना के आकाश में उड़ोगे, तो तुम्हारा भी वह हस्र होगा, जो ईश्वर का हुआ है।

जहाँ तक घोषणा की बात थी, वह मनुष्य की विपर्ययवादी मनोवृत्ति को बहुत भाई और उनके प्रतिपादन खूब पढ़े गए। उन घर-घर में चौराहे-चौराहे पर चर्चा हुई। किसी ने भला कहा, किसी ने बुरा माना। जो हो—इस प्रतिपादन ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी। सर्वत्र उसमें पूछा जाने लगा—यदि ईश्वर नहीं रहा तो उसका स्थानापन्न कौन बनेगा ? जीवन का लक्ष्य क्या रहेगा ? संस्कृति किस आधार पर टिकेगी ? मर्यादाओं की रक्षा कैसी होगी ? समाज का बिखराव कैसे रुकेगा ? धर्म और नीति को किसका आश्रय मिलेगा। प्रेम परमार्थ में किसे, क्यों रुचि रहेगी ?’ यही प्रश्न भीतर से भी उभरे। वह कुछ दिन तो हेकड़ी से वह यही कहता रहा-‘जो सत्य है वह असत्य नहीं हो सकता। समस्याओं की आशंका से यथार्थ को झुठलाया नहीं जा सकता। ईश्वर तो मर ही गया है, अब अपनी समस्याएँ स्वयं सुलझाओ।’
नीत्से की विचारकता क्रमशः अधिकाधिक गंभीरतापूर्वक यह स्वीकार करती ही चली गई कि ईश्वर भले ही मर गया हो, पर स्थान रिक्त होने से जो शून्यता उत्पन्न होगी, उसे सहज ही न भरा जा सकेगा। उद्देश्य, आदर्श और नियंत्रण हट जाने से मनुष्य जो कर गुजरेगा वह ईश्वरवादी भ्रांतियों की अपेक्षा दुःखदायी ही सिद्ध होगा।

नीत्से ने उसका समाधान कारक उत्तर ‘अतिमानव’ का लक्ष्य सामने प्रस्तुत करके दिया है। मनुष्य को अपनी इच्छा शक्ति इतनी प्रखर बनानी चाहिए, जो उसके व्यक्तित्व को अतिमानव स्तर का बना सके। यह निखरा हुआ व्यक्ति इतना प्रचंड होना चाहिए कि जन-प्रवाह के साथ बहती हुई विकृतियों पर नियंत्रण स्थापित करने के साधन जुटा सके। मनुष्य जीवन का लक्ष्य ‘अतिमानव’ के रूप में विकसित होना चाहिए। व्यक्तिगत जीवन में उसे इतनी इच्छा शक्ति उत्पन्न करनी चाहिए, जो संकल्पों के मार्ग में आने वाले हर प्रतिरोध का निराकरण कर सके, सामाजिक जीवन में उसे इतना प्रभावशाली और साधन संपन्न होना चाहिए कि प्रचलित आवांछनीयताओं पर नियंत्रण कर सकने की क्षमता का अभाव अखरे नहीं।
अनीश्वरवाद का पूरक अतिमानववाद दशाब्दियों तक बहुचर्चित रहा। इस उभय-पक्षी प्रतिपादन ने एक रिक्तता पूरी तक दी और नीत्से का अनीश्वरवादी दर्शन विधि-निषेध की उभयपक्षीय आवश्यकताओं को पूरा कर सकने वाला समझा गया। उसे विचारकों ने समग्र की उपमा दी।

अनीश्वरवाद का पृष्ठ पोषण भौतिक विज्ञान ने यह कहकर किया कि ईश्वर और आत्मा के अस्तित्व का ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता, जो प्राकृति के प्रचलित नियमों से आगे तक जाता हो। इस उभयपक्षीय पुष्टि ने मनुष्य की उच्छृंखल अनौतिकता पर और भी अधिक गहरा रंग चढ़ा दिया, तदनुसार वह मान्यता एक बार तो ऐसी लगने लगी कि ‘आस्थाओं का अंत’ वाला समय अब निकट ही आ पहुँचा। ‘अतिमानववाद’ के अर्थ का भी अनर्थ हुआ और योरोप में हिटलर, मुसोलिनी जैसे लोगों के नेतृत्व में नृशंस ‘अतिमानवों’ की एक ऐसी सेना खड़ी हो गई, जिसने समस्त संसार को अपने पैरों तले दबोच लेने की हुँकार भरना आरंभ कर दिया।

खो, प्रजातंत्र और साम्यतंत्र की तरह अनीश्वरवाद में भी है। इसका उचित समाधान बहुत दिन पहले वेदांत के रूप में ढूँढ़ लिया गया है। तत्त्वमसि, सोऽहम, अयमात्मा ब्रह्म, प्रज्ञानंब्रह्म—सूत्रों के अंतर्गत आत्मा की परिष्कृति स्थिति को ही परमात्मा माना गया है। इतना ही नहीं, इच्छा शक्ति को, मनोबल और आत्मबल को—प्रचंड करने के लिए तप-साधना का उपाय भी प्रस्तुत किया गया है। वेदांत अतिमानव के सृजन पर पूरा जोर देता है। मनोबल प्रखर करने की अनिवार्यता को स्वीकार करता है। ईश्वरवाद का खंडन किसी विज्ञ जीव को ईश्वर स्तर तक पहुँचा देने की वेदांत मान्यता बिना रिक्तता उत्पन्न किये बिना अनावश्यक उथल-पुथल किये वह प्रयोजन पूरा कर देती है, जिसमें ईश्वरवाद के नाम पर प्रचलित विडंबनाओं का निराकरण करते हुए अध्यात्म मूल्यों की रक्षा की जा सके।

बुद्धिवाद अगले दिनों वेदांत को परिष्कृत अध्यात्म के रूप में प्रस्तुत करेगा। तब ‘अतिमानव’ की कथित दार्शनिक मान्यताएँ अपूर्ण लगेंगी और प्रतीत होगा कि इस स्तर का प्रौढ़ और परिपूर्ण चिंतन बहुत पहले ही पूर्णता के स्तर तक पहुँच चुका है।



प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book